काव्य प्रयोजन( kavya prayojan) |
⇒काव्य प्रयोजन का तात्पर्य है-’काव्य रचना का उद्देश्य’। काव्य किस उद्देश्य से लिखा जाता है और किस उद्देश्य से काव्य पढ़ा जाता है इसे दृष्टिगत रखकर काव्य प्रयोजनों पर विस्तृत विचार-विमर्श काव्यशास्त्र में किया गया। काव्य प्रयोजन काव्य प्रेरणा से अलग है, क्योंकि काव्य प्रेरणा का अभिप्राय है काव्य की रचना के लिए प्रेरित करने वाले तत्व जबकि काव्य प्रयोजन का अभिप्राय है
काव्य रचना के अनन्तर (बाद में) प्राप्त होने वाले लाभ। यहां हम काल-क्रमानुसार विभिन्न आचर्यों द्वारा निर्द्रिष्ट काव्य प्रयोजनों की समीक्षा करेंगे।
भरत मुनि –
’नाट्य शास्त्र’ के रचयिता भरत मुनि ने नाटक के प्रयोजनों पर विचार करते हुए लिखा है:
धम्र्यं यशस्यं आयुष्यं हितं बुद्धि विवर्धनम्।
लोको उपदेश जननम् नाट्यमेतद् भविष्यति।।
भरत मुनि द्वारा निर्दिष्ट इन प्रयोजनों में भौतिक प्रयोजनों का व्यापक उल्लेख है, किन्तु काव्य का प्रधान उद्देश्य आनन्द प्राप्ति है जिसका उल्लेख यहां नहीं किया गया।
एक अन्य स्थान पर उन्होंने नाटक का उद्देश्य दुःखात व्यक्ति को सुख और शान्ति की प्राप्ति करना बताया है।
भामह –
आचार्य भामह ने काव्य प्रयोजनों की चर्चा करते हुए लिखा है:
धर्मार्थ काम मोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च।
करोति कीर्ति प्रीति´्च साधुकाव्य निबन्धनम्।।
अर्थात् धर्म, अर्थ, काम मोक्ष की प्राप्ति कलाओं में निपुणता के साथ-साथ उत्तम काव्य से कीर्ति और प्रीति (आनन्द) की भी प्राप्ति होती है।
भामह के प्रयोजन व्यापक हैं तथा इनमें कवि और पाठक दोनों के काव्य प्रयोजनों की चर्चा है।
आचार्य वामन –
वामन के अनुसार:
’’काव्यं सद्द्रष्टा द्रष्टार्थ प्रीति-कीर्ति-हेतुत्वात्।’’
अर्थात् काव्य में दो प्रमुख प्रयोजन हैं:
प्रीति अथवा आनन्द साधना
कीर्ति अथवा यश प्राप्ति
आचार्य मम्मट –
आचार्य मम्मट ने अपने ग्रन्थ ’काव्यप्रकाश’ में काव्य प्रयोजनों पर विस्तृत चर्चा की है।उनके अनुसार:
काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्यः परिनिर्वृत्तये कान्तासम्मित तयोपदेशयुजे।।
काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्यः परिनिर्वृत्तये कान्तासम्मित तयोपदेशयुजे।।
अर्थात् काव्य यश के लिए, अर्थ प्राप्ति के लिए, व्यवहार ज्ञान के लिए, अमंगल शान्ति के लिए, अलौकिक आनन्द की प्राप्ति के लिए और कान्ता के समान मधुर उपदेश प्राप्ति के लिए प्रयोजनीय होते है।
मम्मट ने मूलतः छः काव्य प्रयोजन बताए हैं जो निम्नवत हैं:
1. यश प्राप्ति,
2. अर्थ प्राप्ति,
3. लोक व्यवहार ज्ञान,
4. अनिष्ट का निवारण या लोकमंगल,
5. आत्मशान्ति या आनन्दोपलब्धि,
6. कान्तासम्मित उपदेश।
इनमें से काव्य की रचना करने वाले कवि के प्रयोजन है-यश प्राप्ति, अर्थ प्राप्ति, आत्मशान्ति तथा काव्य का अस्वादन करने वाले पाठक के काव्य प्रयोजन है
-लोक व्यवहार ज्ञान, अमंगल की शान्ति, आनन्दोपलब्धि और कान्तासम्मित उपदेश। मम्मट के ये काव्य प्रयोजन अत्यन्त व्यापक हैं। अब हम इनमें से प्रत्येक पर अलग-अलग विचार करेंगे।
यश प्राप्ति –
यश प्राप्ति की इच्छा से कविगण काव्य रचना में प्रवृत्त होते रहे हैं। अतः यश प्राप्ति को मम्मट ने काव्य का प्रमुख प्रयोजन माना है।
काव्य रचना करके अनेक महाकवियों ने अक्षय यश प्राप्त किया है। कालिदास, सूरदास, तुलसी, बिहारी, प्रसाद जैसे अनेक कवि आज भी अमर हैं। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है:
’’निज कवित्त केहि लाग न नीका।
सरस होहु अथवा अति फीका।।
जो प्रबन्ध कुछ नहिं आदरहीं।
सो श्रम वाद बाल कवि करहीं।।’’
अर्थात् अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती, चाहे सरस हो या फीकी, किन्तु जिस रचना को विद्वानों का आदर प्राप्त नहीं होता उस रचनाकार का श्रम व्यर्थ ही है।
इससे यह ध्वनित होता है कि कवि की आकांक्षा होती है कि उसकी रचना विद्वानों के द्वारा सराही जाए अर्थात् यश प्राप्ति की कामना सभी कवियों में होती है।
जायसी ने भी पद््मावत में यह स्वीकार किया है कि मैं चाहता हूं कि अपनी कविता के द्वारा संसार में जाना जाऊं।
’’औ मैं जान कवित अस कीन्हा।
मकु यह रहै जगत मंह चीन्हा।।’’
’’औ मैं जान कवित अस कीन्हा।
मकु यह रहै जगत मंह चीन्हा।।’’
रीतिकालीन कवि आचार्य कुलपति, देव और भिखारीदास ने भी अपने काव्य प्रयोजनों में यश प्राप्ति को विशेष स्थान दिया है।यह भी उल्लेखनीय है कि कवियांे ने जिन राजाओं को अपनी कविता का विषय बनाया वे भी अमर हो गए। निष्कर्ष यह है कि यश प्राप्ति काव्य का प्रमुख प्रयोजन है।
अर्थ प्राप्ति –
काव्य रचना का एक प्रयोजन धन प्राप्ति भी रहा है। धनोपार्जन की इच्छा से रीतिकालीन कवियों ने राजदरबारों में आश्रय ग्रहण किया। कहते हैं कि बिहारी को प्रत्येक दोहें की रचना के लिए एक अशर्फी प्राप्त होती थी।आधुनिक युग में कवि सम्मेलनों में अनेक कवि अपनी कविताओं को गाकर, सुनाकर अच्छा-खासा धन पैदा कर रहे हैं।इस प्रकार कविता धनोपार्जन का माध्यम बन गई है। इसीलिए सम्भवतः मम्मट ने अर्थ प्राप्ति को काव्य प्रयोजनों में स्थान दिया है।
व्यवहार ज्ञान
– आचार्य मम्मट ने व्यवहार ज्ञान को भी काव्य का प्रयोजन माना है। रामायण आदि महाकाव्यांे के अनुशीलन से पाठकों को उचित व्यवहार की शिक्षा प्राप्त होती है।
संस्कृत में बहुत-सा साहित्य इसी प्रयोजन को ध्यान में रखकर लिखा गया था। पंचतन्त्र, हितोपदेश, नीतिशतक जैसे ग्रन्थ व्यवहार ज्ञान की शिक्षा देने के लिए लिखे गए।
काव्य के अनुशीलन से यह ज्ञात होता है कि हम कैसा व्यवहार करें। रामचरितमानस व्यवहार का दर्पण है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने चिन्तामणि में यह स्वीकार किया है कि काव्य से व्यवहार ज्ञान होता है:
’’यह धारणा कि काव्य व्यवहार का बाधक है, उसके अनुशीलन से कर्मण्यता आती है, ठीक नहीं। कविता तो भाव प्रसार द्वारा कर्मण्य के लिए कर्मक्षेत्र का और विस्तार कर देती है।’’
No comments:
Post a Comment